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सनातन धर्म की अनमोल देन गुरु शिष्य परम्परा

भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराएं अत्यंत प्राचीन और समृद्ध हैं उनमें से एक अनमोल परंपरा है गुरु - शिष्य परंपरा वर्तमान में अधिकांश लोगों का जीवन भागदौड़ तथा समस्याओं से ग्रसित है । जीवन में मानसिक शांति एवं आनंद प्राप्त करने के लिए कौन सी साधना, कैसे करें, इसका यथार्थ ज्ञान गुरु ही करवाते हैं । यह परंपरा केवल ज्ञान के हस्तांतरण का माध्यम नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण, आत्मा के उत्थान और आध्यात्मिक मार्गदर्शन का आधार भी रही है

सनातन धर्म की अनमोल देन गुरु शिष्य परम्परा

भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराएं अत्यंत प्राचीन और समृद्ध हैं उनमें से एक अनमोल परंपरा है गुरु – शिष्य परंपरा वर्तमान में अधिकांश लोगों का जीवन भागदौड़ तथा समस्याओं से ग्रसित है । जीवन में मानसिक शांति एवं आनंद प्राप्त करने के लिए कौन सी साधना, कैसे करें, इसका यथार्थ ज्ञान गुरु ही करवाते हैं । यह परंपरा केवल ज्ञान के हस्तांतरण का माध्यम नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण, आत्मा के उत्थान और आध्यात्मिक मार्गदर्शन का आधार भी रही है। भारतीय संस्कृति में गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। संत कबीर कहते है
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥
*गुरु का महत्व*:
‘गुरु’ शब्द का अर्थ होता है ‘अंधकार (अज्ञान) को दूर कर प्रकाश (ज्ञान) की ओर ले जाने वाला’। गुरु वह होता है जो शिष्य के जीवन को दिशा देता है, उसके भीतर स्थित आत्मा को जागृत करता है और उसे आत्मबोध की ओर ले जाता है
*“गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।*
*गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥”
यह श्लोक गुरु के महत्व और उनके द्वारा दिए गए ज्ञान के प्रति आभार व्यक्त करता है, जो हमें अज्ञान के अंधकार से निकालकर सत्य का प्रकाश दिखाते हैं। यह गुरु को सर्वोच्च स्थान देता है, जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान ही शक्ति और महिमा रखते हैं।

*ईश्वर और गुरु एक ही हैं
गुरु अर्थात ईश्वर का साकार रूप और ईश्वर अर्थात गुरु का निराकार रूप
किसी बैंक की अनेक शाखाएँ होती हैं। उनमें से किसी भी स्थानीय शाखा में खाता खोलकर पैसे जमा किए जा सकते हैं। ऐसा करना सरल भी होता है। यह आवश्यक नहीं कि मुख्य कार्यालय में जाकर ही पैसे जमा किए जाएं। वहाँ जाने का कष्ट करने की आवश्यकता नहीं होती।
उसी प्रकार भक्ति, सेवा, त्याग आदि यदि अदृश्य ईश्वर के लिए करने की अपेक्षा, उसके सगुण स्वरूप अर्थात गुरु के संदर्भ में किए जाएं, तो वह सरल होता है। स्थानीय शाखा में जमा किया गया धन जैसे मुख्यालय में ही जमा होता है, वैसे ही गुरु की सेवा की जाए, तो वह सेवा ईश्वर तक ही पहुँचती है।

*शिष्य का स्वरूप*
‘शिष्य’ वह होता है जिसमें सीखने की तड़प हो, श्रद्धा रखता हो और अपने जीवन में गुरु के उपदेशों को आत्मसात करने की उत्कंठा रखता हो। शिष्यता केवल ज्ञान प्राप्त करना नहीं है, बल्कि अहंकार का त्याग कर समर्पण के भाव से गुरु के चरणों में लीन होना है।
आध्यात्मिक उन्नति हेतु जो गुरु द्वारा बताई साधना करता है, उसे ‘शिष्य’ कहते हैं । आज्ञाकारिता, शिष्य के समस्त गुणों में सर्वश्रेष्ठ है। शिष्य के श्रेणी में आने हेतु मुमुक्षुत्व का गुण होना भी अनिवार्य है वास्तव में जबतक शिष्य यह बात ठान न ले, तब तक वह जीवन्मुक्त नहीं हो सकता । जिसकी प्रज्ञा जागृत हुई, वही वास्तविक शिष्य है

*गुरुकुल परंपरा*
प्राचीन भारत में शिक्षा का प्रमुख माध्यम गुरुकुल व्यवस्था थी, जहाँ शिष्य गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे। यहाँ शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं होती थी, बल्कि धर्म, नीति, व्यवहार, अस्त्र-शस्त्र, संगीत, योग और आत्म ज्ञान की भी शिक्षा दी जाती थी। उदाहरणस्वरूप, श्रीराम ने ऋषि वशिष्ठ एवं विश्वामित्र से शिक्षा प्राप्त की; श्री कृष्ण ने ऋषि सन्दीपनि से शिक्षा प्राप्त की।

*गुरु-शिष्य परंपरा का आध्यात्मिक पक्ष*
गुरु केवल शास्त्रों का ही ज्ञाता नहीं होता, वह शिष्य की आत्मा का चिकित्सक भी होता है। जब शिष्य अपने संदेहों, भ्रमों और अहंकारों से मुक्त होकर गुरु के सान्निध्य में आता है, तब उसे आत्मसाक्षात्कार का मार्ग प्राप्त होता है।
गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए श्री शंकराचार्य ने कहा है :
“ज्ञानदान करनेवाले सद्गुरुओं की उपमा इस त्रिभुवन में कहीं भी नहीं मिलती। यदि उन्हें पारस की उपमा दी जाए, तो भी वह अधूरी ही रहेगी;
क्योंकि पारस लोहे को स्वर्ण तो बना सकता है, परंतु उसे अपना ‘पारसत्व’ नहीं दे सकता।”
“कल्पवृक्ष की उपमा दी जाए तो भी कम है, क्योंकि कल्पना करने से उसका महिमा मिलता है। परंतु बिना कल्पना किए ही जो इच्छा पूर्ण कर दे, वह कामधेनु स्वरूप श्रीगुरु ही हैं।” — श्री गुरुचरित्र
वास्तव में “गुरु को उपमा देने योग्य कोई भी वस्तु इस जगत में नहीं है।

*वर्तमान में गुरु-शिष्य परंपरा*
आज की आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में यह परंपरा धुंधली पड़ती जा रही है। शिक्षक और छात्र के बीच का संबंध केवल शैक्षणिक सीमाओं में सिमटता जा रहा है। सिर्फ आध्यात्मिक संस्थाओं, संगीत, योग और पारंपरिक कलाओं में यह परंपरा आज भी कुछ मात्रा में जीवित है ।

*निष्कर्ष*
गुरु और शिष्य की परंपरा भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व करती है। यह केवल ज्ञान का संबंध नहीं है, बल्कि आत्मा से आत्मा का मिलन है। समाज में यदि गुरु-शिष्य की यह परंपरा पुनः सशक्त हो, तो शिक्षा केवल रोजगार का साधन न होकर जीवन को पूर्ण और सार्थक बनाने का माध्यम बन सकती है।

संकलक : बबीता गांगुली
सनातन संस्था

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