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सब्ज़बाग से बिहार को बाहर निकलने की चुनौती

बिहार विधानसभा का चुनाव इसी वर्ष के अंत में प्रस्तावित है और जो जानकारी छनकर सामने आ रही है उसके अनुसार दीपावली और छठ के मध्य या उसके बाद चुनाव कराया जा सकता है। चुनाव हमारे देश का बहुत बड़ा जिम्मेदारी भरा लोकतांत्रिक उत्सव होता है जिसमें अधिकार प्राप्त हर नागरिक की भागीदारी आवश्यक रूप से होनी ही चाहिए

सब्ज़बाग से बिहार को बाहर निकलने की चुनौती

बिहार विधानसभा का चुनाव इसी वर्ष के अंत में प्रस्तावित है और जो जानकारी छनकर सामने आ रही है उसके अनुसार दीपावली और छठ के मध्य या उसके बाद चुनाव कराया जा सकता है। चुनाव हमारे देश का बहुत बड़ा जिम्मेदारी भरा लोकतांत्रिक उत्सव होता है जिसमें अधिकार प्राप्त हर नागरिक की भागीदारी आवश्यक रूप से होनी ही चाहिए। इसलिए, क्योंकि मतदान का प्रतिशत दिनोंदिन गिरता जा रहा है, जिसे किसी लोकतांत्रिक देश के लिए उचित कतई नहीं कहा सकता है। ऐसे में कई बार ऐसा भी लगने लगता है, जैसे हमारे युवा उतने उत्साह से चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लेने से कतराने लगे हैं। लेकिन, बिहार बुद्धिजीवियों का प्रदेश है, जहां के हर नागरिक को अपने कर्तव्य और अधिकारों का ज्ञान है और वे चुनाव में उत्साह से हिस्सा लेकर अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हैं। लेकिन, एक बात यह भी कि वहां के लोग बड़े सीधे होते हैं और जिसका लाभ अनर्गल प्रलाप करके राजनीतिज्ञ उठाते रहते हैं। आप यदि आजादी के बाद का बिहार का इतिहास देखें, तो आपको प्रदेश के राजनीतिज्ञों के बारे में सोचने मात्र से मन खिन्न हो जाएगा। समाज की गलती यह होती है कि वे चतुर और स्वार्थी राजनेताओं के बहकावे में आकर निहायत ही अयोग्य प्रत्याशी को चुनकर विधानसभा भेज देते हैं और उसके बाद पांच वर्ष तक अफसोस करते रहते हैं या कहिए कि सिर धुनते रहते हैं। लेकिन, उसका कोई फल उसी तरह नहीं निकलता जैसे कमान से तीर निकल जाने के बाद वह वापस नहीं आता।

आज यदि देश के किसी राज्य के युवा सर्वाधिक उपेक्षित है, तो उसमें  बिहार के युवाओं का ही नाम आता है। आप देश के किसी भी शहर में चले जाएं, आपको बिहार के युवा बेरोजगार बिन ढूंढे ही मिल जाएंगे। पिछले दिनों बिहार के एक पूर्व उद्योग मंत्री से हमारी बात हुई। बातचीत के क्रम में उन्हें देश के अन्य राज्यों के विकास के बारे में जब कहा, तो उनका जवाब था कि केंद्र सरकार के निर्देश पर अब बिहार ही नहीं, किसी भी राज्य में सरकार द्वारा कोई उद्योग नहीं लगाया जाएगा। हां, यदि कोई व्यक्ति निजी उद्योग लगाना चाहे, तो वह उसके लिए स्वतंत्र है। पर, यक्ष प्रश्न यह है कि बिहार की छवि इस कदर खराब कर दी गई है कि कोई भी राज्य में उद्योग लगाने के लिए आगे नहीं आ रहा है। बिहार की छवि को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी बिहार से बाहर रहने वालों को ही लेनी पड़ेगा, अन्यथा इसी तरह की स्थिति बनी ही रहेगी। कुछ लोगों का यह कहना है कि बिजली, सड़क की स्थिति तो अब सुधर गई है, फिर भी उद्योग लगाने बाहर से कोई क्यों नहीं आ पा रहा है, यह समझ से परे है। तो चाहे सरकार द्वारा हो या मीडिया द्वारा, बिहार की छवि इस तरह बना दी गई है कि उसे ठीक करने का दीर्घकालीन गंभीर और ईमानदारी पूर्ण प्रयास आवश्यक हो गया है। राजनीतिज्ञ तो एक दूसरे की बुराई कराके जनता को अपने पक्ष में करने में ही लगे रहते हैं, लेकिन राज्य के बाहर मीडिया से जुड़े लोग भी स्वयं को बढ़ा चढ़ाकर दूसरों के सामने इस तरह की बातें लिखते या बोलते रहते हैं जिससे प्रदेश की छवि को भारी नुकसान होता है। उन्हें नहीं मालूम कि उनकी इस डपोरशंखी शेखी का देश दुनिया, और विशेषकर बिहार पर क्या असर पड़ेगा।

माना जा रहा है कि आजादी के बाद सबसे पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होने वाले ने ही राज्य को आगे बढ़ाने का थोड़ा बहुत कार्य किया था। जबकि, उसके बाद जितने भी नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए, जातिगत समीकरण में ही उलझे रहे और जनता को भी उलझाए रखा। स्वाभाविक रूप से परिणाम सुफल कतई नहीं रहा और राज्य दिनोंदिन गर्त में चला गया। सम्पूर्ण भारत एक ही दिन आजाद हुआ था, लेकिन अन्य राज्यों से तुलना में बिहार आज बहुत ही पिछड़ा हुआ है। प्रदेश सरकार ही नहीं, केंद्र सरकार द्वारा भी बिहार के विकास के लिए लंबी लंबी बाते करने और सब्जबाग दिखाने के अलावा और कुछ नहीं किया जाता है। जनता भी राजनेताओं की चिकनी चुपड़ी बातों में आ जाती है, जिसका फायदा उठाते हुए ये नेता समाज को गुमराह करके, उसे सब्जबाग दिखाकर उनकी मनोदशा पर कब्जा कर लेते हैं। बिहार के साथ ऐसा शुरू से ही होता रहा है, जिसके कारण बिहार देश में सर्वाधिक पिछड़े राज्य में गिना जाने लगा है।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है अभी इसी वर्ष दीपावली और छठ के दौरान या उसके आसपास चुनाव कराए जाएंगे; क्योंकि दीपावली और छठ का त्योहार पूरे बिहार में धूमधाम से मनाए जाते हैं।ऐसे में यदि इस दौरान चुनाव कराए गए, तो मतदान का प्रतिशत बढ़ेगा। हालांकि, यह एक अच्छी सोच है, लेकिन इसके पीछे के छुपे कारणों की समीक्षा करने पर इसकी रणनीति हर किसी की समझ में आसानी से नहीं आ सकती है। पिछले दिनों कुछ राज्यों में जो चुनाव हुए, वे अब भी विवादित हैं, लेकिन इसका कोई असर सत्तारूढ़ पर नहीं दिख रहा है। कारण उनका एक ही फंडा है साम दाम दंड भेद, चाहे जिस विधि से हो, चुनाव जीतना है। इसीलिए पिछले चुनावी इतिहास को ध्यान में नहीं रखा जाता है और नए शगूफों के जरिये नेता लोग जनता को अपनी ओर खींच लेते हैं। उसके बाद अपने हिसाब से चुनाव जीत जाते हैं और सत्ता में आ जाते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि पिछले दिनों राज्यों के संपन्न चुनावों में मतदाताओं को मतदान से वंचित कर दिया गया और फिर अपने चाहने वालों का नाम कई वोटर लिस्ट में डालकर अपनी जीत सुनिश्चित कर ली। जीतने वाला कहता है कि जिसकी हार होती है, वह आरोप लगाता ही है। हालांकि, कुछ कानूनी कार्यवाही भी होती है, लेकिन फैसला और सच झूठ को सामने आते आते पांच साल बीत जाते है। फिर दुहाई देने या आरोप लगाने से क्या हासिल !

अभी तक यह निश्चित नहीं हो पाया है कि कौन किस गठबंधन में शामिल होकर चुनाव लड़ेगा, लेकिन अब तक जो जानकारी मिल रही है कि उसके अनुसार एनडीए और जेडीयू संयुक्त रूप से चुनाव लड़ेंगे तथा सीट शेयरिंग की जो बात अभी चल रही है, यदि समझौते में तय हो जाए, तो जेडीयू 102 से 103 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, भाजपा 101 से 102 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है। पटना से वरिष्ठ पत्रकार सरोज सिंह बताते हैं कि एनडीए का पलड़ा आज भारी है । इसके अतिरिक्त लोक जन शक्ति पार्टी 40 सीटों पर, हिंदुस्तान लोक जनशक्ति पार्टी, हिंदुस्तान मोर्चा और राष्ट्रीय लोक मंच को भी कुछ सीटें दी जाएंगी। अभी समय है, लेकिन यदि आगे बात बढ़ी, तो चिराग पासवान और मांझी तथा कुशवाहा की मांगें कुछ और हो सकती है। इस चुनावी अभियान के लिए जितनी भी बातें बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर की जा रही हैं, वे सभी केवल कयास ही हैं, लेकिन मुद्दा तो गरम कुछ आगे के दिनों होने जा रहा है। वैसे, प्रधानमंत्री मधुबनी की चुनावी सभा को संबोधित कर आए। निश्चित रूप से उनका भाषण तो ओजस्वी होता ही है, पता नहीं अभी तो बहुत बार प्रधानमंत्री और विपक्ष के सारे नेताओं का दौरा कितनी बार हो, यह कहा नहीं जा सकता। वैसे चुनाव के समय तक बाजी पलट भी जाती है, लेकिन जिस साम दम दंड भेद से चुनाव जीता जाता है, उसे कहने की कोई जरूरत नहीं होती है। कई बार तो जीता हुआ चुनाव भी राजनीतिज्ञ हार जाते हैं, और कई बार हारी हुई बाजी भी जीत लेते हैं। इसलिए गर्भस्थ शिशु क्या होगा, इसकी भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता। आगे देखकर चलिए और बिहार की छवि को बनाकर रखिए। इसी प्रसंग पर यह चर्चा भी जरूर करनी होगी कि बिहार ही नहीं, देश में जब तक शिक्षा का शतप्रतिशत प्रसार नहीं होगा, बिहार ही नहीं, पूरा भारत पूरी दुनिया में उपेक्षित ही रहेगा।

निशिकांत ठा​कुर

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)

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