पांच जुलाई को आज़ाद हिंद सेना की स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में
देश की स्वतंत्रता के लिए आजाद हिंद सेना की देश सेवा

पांच जुलाई को आज़ाद हिंद सेना की स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में
देश की स्वतंत्रता के लिए आजाद हिंद सेना की देश सेवा
आजाद हिंद सेना का नाम आते ही हमारी आँखों के सामने खड़े हो जाते हैं देश की स्वतंत्रता के लिए समूचे विश्व को चुनौती देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस। आज़ाद हिंद सेना भारतीय गुलामी के कालखंड में भारत की अपनी स्वतंत्र सेना थी। इस सेना की स्थापना नेताजी ने 5 जुलाई 1943 को द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान की थी।
ब्रिटिशों के विरुद्ध संघर्ष हेतु नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने 40,000 भारतीय स्त्री-पुरुषों के सहयोग से इस सेना का गठन किया और तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा ऐसा ओजस्वी आहवान किया आजाद हिंद सेना की स्थापना दिवस के अवसर पर यह लेख प्रस्तुत है।
देश से बाहर निकले नेताजी को साढ़े तीन वर्ष बीत चुके थे लेकिन उन्हें अपनी मातृभूमि लौटने की तीव्र इच्छा थी वे भारत में तब प्रवेश करना चाहते थे जब शत्रु का नाश हो चुका हो और मातृभूमि को दासता से मुक्त करके वे एक स्वतंत्र राष्ट्र के सम्मानित नागरिक बन सकें।
नेताजी कोई दिवास्वप्न देखने वाले आशावादी नहीं थे बल्कि वे दूरद्रष्टा थे। पूरी तैयारी और सामर्थ्य के साथ निर्णायक हमला कर के ही सफलता की सुनिश्चितता पर वे आगे बढ़ते थे। पर उन्हें यह भी भलीभांति ज्ञात था कि केवल सेना और हथियारों से काम नहीं चलेगा, अपितु देशवासियों का मन से समर्थन भी आवश्यक है।
उनका यह भी विचार था कि जब आजाद हिंद सेना पूर्व दिशा से विदेशी शासन पर आक्रमण करेगी उसी समय भारत की जागृत जनता भीतर से विद्रोह करेगी और यह दोहरी चोट ब्रिटिश सत्ता को टिकने नहीं देगी येही था नेताजी का स्वतंत्रता का सूत्र लेकिन इसके लिए आवश्यक था कि भारतवासी आजाद हिंद सेना को अपनी मुक्ति सेना और भविष्य के स्वतंत्र भारत की सेना के रूप में देखें। यह कार्य कठिन था, क्योंकि एक ओर ब्रिटिशों ने इस सेना के विरुद्ध षड्यंत्रपूर्वक प्रचार किया उन्हें ‘जिफ्स’ (जापानी प्रेरित गुप्तचरी दल) कहा गया जिससे लोगों को यह लगने लगा कि यह सेना जापान की कठपुतली है और भारत पर हमला कर सत्ता प्राप्त करना चाहती है। दूसरी ओर भारत के स्थापित नेताओं और कांग्रेस ने भी नेताजी और उनकी सेना को नकार दिया और आलोचना की
जब अपनी ही मातृभूमि में यह स्थिति थी तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस सेना का क्या सम्मान होता? नेताजी ने यह जान लिया था कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम को अंतरराष्ट्रीय समर्थन मिलना अत्यंत आवश्यक है। उनका लक्ष्य यह था कि उनका और उनकी सेना का प्रतिनिधित्व एक स्वतंत्र राष्ट्र की ओर से हो और सभी स्वतंत्रता प्रेमी एशियाई और पश्चिमी राष्ट्र उनका साथ दें।
आजाद हिंद सेना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ या सत्ता की भूख के लिए नहीं बनी थी, बल्कि यह एक संघर्षरत राष्ट्र की अस्मिता थी। इसलिए नेताजी कभी नहीं चाहते थे कि इस सेना या उसके समर्थक राष्ट्रों की बदनामी हो। वे सैन्य अनुशासन और युद्धनीति के अनुसार न्यायसंगत मार्ग से स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे। ठीक उसी प्रकार जैसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने राज्याभिषेक करवाकर स्वराज्य की घोषणा की थी वैसे ही नेताजी ने भी आजाद हिंद का अस्थायी सरकार गठित करने का निर्णय लिया। उनका यह स्पष्ट संकेत था कि यह सेना कोई डाकुओं की टोली नहीं न ही सत्ता के लिए प्यासे लोगों की भीड़ थी बल्कि एक स्वतंत्र भारत की प्रतिनिधि सेना थी जो दुनिया को यह बताना चाहती थी कि वह राष्ट्रध्वज और सेनापति के नेतृत्व में स्वतंत्रता के लिए लड़ रही है
मार्च 1945 से मित्र राष्ट्रों के सामने जापान की हार शुरू हो गई। जर्मनी ने 7 मई को बिना शर्त आत्मसमर्पण किया और जापान ने 15 अगस्त को इस अप्रत्याशित पराजय से नेताजी की सभी आशाएं टूट गईं। जब वे युद्ध की अगली योजना के तहत सायाम की ओर जा रहे थे उसी दौरान 18 अगस्त 1945 को फार्मोसा द्वीप के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उनका ह्रदयविदारक अंत हुआ।
भले ही आज़ाद हिंद सेना दिल्ली तक न पहुँच सकी, लेकिन उसने जो विशाल चुनौती ब्रिटिश साम्राज्य के सामने रखी, उसका इतिहास में कोई जोड़ नहीं है। इससे ब्रिटिश सरकार की नींव हिल गई। उन्हें यह आभास हो गया कि भारत पर शासन करना अब असंभव है। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने भी यह स्वीकार किया कि ब्रिटिश सरकार ने भविष्य के अपमान से बचने के लिए भारत छोड़ने का निर्णय लिया।
आजाद हिंद सेना के सैनिकों की निस्वार्थ देशसेवा से लाखों देशवासियों के मन में स्वतंत्रता की तीव्र भावना उत्पन्न हुई। नेताजी का असीम साहस और तन-मन-धन अर्पित करने वाले सैनिकों को कोटि-कोटि वंदन और श्रद्धांजलि!
संकलनकर्ता
शंभू गवारे
पूर्व एवं पूर्वोत्तर भारत राज्य समन्वयक
हिन्दू जनजागृति समिति