गुरु-शिष्य परंपरा’ का दिव्य स्मरण कराने वाला पर्व – गुरुपूर्णिमा
गुरु-शिष्य परंपरा सनातन धर्म की वह अनुपम देन है, जो न केवल भारत, अपितु संपूर्ण विश्व के लिए प्रकाश का स्तंभ है। गुरु ही शिष्य को इस माया के भवसागर से मुक्त कर साधना के मार्ग पर आगे बढ़ाते हैं। कठिन समय में गुरु निरपेक्ष प्रेम एवं अपनत्व से सहारा देकर शिष्य को संकट से उबारते हैं। “गुरु वह दीपक है, जो स्वयं जलकर भी दूसरों के जीवन को आलोकित करता है ऐसे महान गुरु-शिष्य परंपरा का दिव्य स्मरण कराने वाला पर्व है गुरु पूर्णिमा

गुरु-शिष्य परंपरा’ का दिव्य स्मरण कराने वाला पर्व – गुरुपूर्णिमा
गुरु-शिष्य परंपरा सनातन धर्म की वह अनुपम देन है, जो न केवल भारत, अपितु संपूर्ण विश्व के लिए प्रकाश का स्तंभ है। गुरु ही शिष्य को इस माया के भवसागर से मुक्त कर साधना के मार्ग पर आगे बढ़ाते हैं। कठिन समय में गुरु निरपेक्ष प्रेम एवं अपनत्व से सहारा देकर शिष्य को संकट से उबारते हैं। “गुरु वह दीपक है, जो स्वयं जलकर भी दूसरों के जीवन को आलोकित करता है ऐसे महान गुरु-शिष्य परंपरा का दिव्य स्मरण कराने वाला पर्व है गुरु पूर्णिमा
*गुरुपूर्णिमा मनाने की तिथि एवं उद्देश्य* :
‘गुरुपूर्णिमा का उत्सव’ सभी जगह आषाढ़ माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस वर्ष गुरुपूर्णिमा 10 जुलाई को है । प्रस्तुत लेख से गुरुपूर्णिमा का महत्व जानकर उसके अनुसार कृति करने का प्रयास करेंगे और गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करेंगे। गुरु अर्थात ईश्वर का सगुण रूप ! वर्ष भर गुरु अपने भक्तों को अध्यात्म का ज्ञान देते हैं । इसलिए गुरु के प्रति अनन्य भाव से कृतज्ञता व्यक्त करना, यही गुरुपूर्णिमा मनाने का उद्देश्य है
*गुरुमहिमा :*
*गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममंगलम्।*
गुरु की कृपा शिष्य के लिए परम कल्याणकारी होती है। गुरु केवल सांसारिक सुख-सुविधा नहीं, अपितु शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति हेतु निरंतर प्रयत्न करते हैं। वे शिष्य को साधना की ओर प्रवृत्त कर उसके जीवन की बाधाओं को दूर कर उसे पूर्णत्व की ओर ले जाते हैं।
श्री गुरुगीता में ‘गुरु’ संज्ञाकी उत्पत्तिका वर्णन इस प्रकार किया गया है :
*गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते।*
*अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः॥*
अर्थात, ‘गु’ का अर्थ है अंधकार अथवा अज्ञान और ‘रु’ का अर्थ है प्रकाश अथवा ज्ञान। गुरु ही वह ब्रह्म हैं, जो अज्ञान का अंधकार दूर कर प्रकाश प्रदान करते हैं। इसलिए गुरुप्राप्ति ही साधक का प्रथम ध्येय है, क्योंकि गुरु के बिना ईश्वरप्राप्ति संभव नहीं।
शास्त्रों में कहा गया है —
*ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्।*
*मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा॥*
अर्थात गुरु ही ध्यान, पूजन, मंत्र और मोक्ष का मूल हैं।
संत कबीर भी कहते हैं —
*बिना गुरु के गति नहीं, गुरु बिन मिले न ज्ञान।*
*निगुरा इस संसार में, जैसे सूकर, श्वान॥*
अर्थात जिसे श्री गुरु द्वारा ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है, उसके लिए भवसागर को पार करने का कोई भी उपाय नहीं रहता ।
भगवान श्रीकृष्ण ने भी गुरु भक्ति को ईश्वर भक्ति से श्रेष्ठ बताया है। इसलिए गुरु का स्मरण व पूजन, साधक के जीवन का सबसे पवित्र कर्तव्य है।
*गुरुपूर्णिमा मनाने का महत्व* :
गुरुपूर्णिमाके दिन गुरुतत्त्व एक सहस्त्र गुना कार्यरत होने से साधक एवं शिष्य अधिकाधिक लाभ ग्रहण कर पाते हैं । उस दिन ग्रहण किए गए लाभ को स्थायी रखने के लिए केवल एक दिन ही नहीं, बल्कि सदैव प्रयत्नरत रहना अत्यावश्यक है । गुरु ईश्वरके सगुण रूप होते हैं । उन्हें तन, मन, बुद्धि तथा धन समर्पित करने से उनकी कृपा अखंड रूपसे कार्यरत रहती है। वास्तव में गुरु को हमसे कोई भी अपेक्षा नहीं रहती; परंतु गुरुके लिए त्याग करने से हमें आध्यात्मिक लाभ मिलता है। किसी विषय वस्तु का त्याग करने से उसके प्रति व्यक्ति की आसक्ति घट जाती है । तन के त्याग से देहभान क्षीण होता है एवं देह ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण कर पाती है । मनके त्यागसे मनोलय होता है तथा विश्वमन से एकरूपता साध्य होती है । बुद्धि के त्याग से व्यक्ति की बुद्धि विश्वबुद्धि से एकरूप होती है तथा वह ईश्वरीय विचार ग्रहण कर पाता है । त्याग के माध्यम से गुरु व्यक्ति के लेन-देन को घटाते हैं। तन, मन एवं बुद्धि की तुलनामें धनका त्याग करना साधक तथा शिष्यके लिए सहजसुलभ होता है।
*गुरुपूर्णिमा उत्सव मनानेकी पद्धति* :
सर्व संप्रदायोंमें गुरुपूर्णिमा उत्सव मनाया जाता है । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुरु देहसे भले ही भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं परंतु गुरुतत्त्व तो एक ही है। सभी गुरु, स्थूल शरीर से अलग होते हुए भी, आंतरिक रूप से एक हैं। जिस प्रकार गाय के प्रत्येक थन से एक समान दूध निकलता है, उसी प्रकार प्रत्येक गुरु में गुरुत्व एक समान होता है, तथा उनसे निकलने वाली आनंद की तरंगें भी एक समान होती हैं।
गुरु पूजनके लिए सर्वप्रथम चौकी को पूर्व-पश्चिम दिशामें रखा जाताहै। जहांतक संभव हो, उसके लिए मेहराब अर्थात लघुमंडप बनानेके लिए केलेके खंभे अथवा केलेके पत्तोंका प्रयोग कियाजाताहै। गुरु की प्रतिमा की स्थापना करने हेतु लकड़ी से बने पूजाघर अथवा चौकी का उपयोग करते हैं। पूजन करते समय ऐसा भाव रखें कि हमारे समक्ष प्रत्यक्ष सदगुरु विराजमान हैं। सर्वप्रथम श्री महागणपतिका आवाहन कर देशकालकथन किया जाता है। श्रीमहागणपतिका पूजन करने के साथ-साथ विष्णुस्मरण किया जाता है। उसके उपरांत सदगुरुका अर्थात महर्षि व्यासजी का पूजन किया जाता है। उसके उपरांत आदि शंकराचार्य इत्यादिका स्मरण कर अपने-अपने संप्रदायानुसार गुरुका पूजन किया जाता है। यहां पर प्रतिमापूजन अथवा पादुकापूजन भी होता है। उसके उपरांत अपने गुरुका पूजन किया जाता है।
गुरुपूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं, यह गुरु के प्रति श्रद्धा, आभार और समर्पण की भावना का प्रतीक है। हमें अपने जीवन में गुरु के योगदान को न भूलते हुए उनके आदर्शों पर चलने का प्रयास करना चाहिए। यही इस पर्व की सच्ची सार्थकता है।
संकलनकर्ता
बबीता गांगुली
सनातन संस्था